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Showing posts from August, 2016

अब तो हर गली में निर्भया की चीखें हैं

अब तो हर गली में निर्भया की चीखें हैं, अदालतें हैं कि देती सिर्फ तारीखें हैं। लंगड़े सिस्टम, अंधे कानून से आस लगाए बैठे हैं, सबकुछ मालूम फिर भी अपनी जान फंसाए बैठे हैं। इंसाफ पर यहां शकुनि मामा का पहरा है, सत्ता पर बैठे दुर्योधन क्या जाने, ये जख्म कितना गहरा है। विनोद यादव

वाह रे पत्रकारिता क्या है तू......

पिछले सप्ताह ओडिशा के कालाहांडी गांव की एक खबर पूरे देश को झकझोर के रख दिया। दाना मांझी नाम के एक शख्स की दयनीय स्थिति का आलम यह था की उसे अपनी मृत पत्नी को कंधों पर लादकर 12 किमी तक पैदल चलना पड़ा। मेरी संपूर्ण संवेदानाएं दाना मांझी के साथ हैं। बेचारा मांझी करता भी तो क्या गरीबी नामक बीमारी से जो ग्रस्त था। दाना मांझी की पत्नी को टीबी की बीमारी थी जिससे वह मर गई लेकिन मांझी तो गरीबी की बीमारी से रोज झूझेगा और हर दिन मरेगा। गरीबी के नाम पर देश में कितने की ढकोसले तैयार किए जाएं लेकिन ये ढकोसले खाली थे, खाली हैं और रहेंगे। क्योंकि इस देश का गरीब केवल वोट बैंक बटोरने का एक जरिया मात्र है, इससे ज्यादा कुछ नहीं। खैर दाना मांझी की दुर्दशा पर संवेदाना रूपी जितने भी मरहम लगाए जाएं वह कम ही साबित होंगे। लेकिन मेरा गुस्सा यहां इंसानियत के उन कथित ठेकेदारों और कथित लोकतंत्र का चौथा स्तंथ बने मीडिया पर है। कोई दाना मांझी अपनी पत्नी को कंधे पर लेकर 12 किमी तक ढोहता है और मीडिया के लोग अपने कैमरे से मांझी की दयनीयता को कवर करने में लगा रहता है। शायद पत्रकारिता के धर्म में इतने सराबोर हो चुके थे