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Showing posts from December, 2017

मेरा पेट भरकर, मां को भूखा देखा है।

मजबूरियों के बोझ को बड़ी हिम्मत से ढोते देखा है। मेरी हटों पर चांटा मारकर, मां को रोते देखा है। घर में इक दाना नहीं, मैंने ऐसा सूखा देखा है। फिर भी मेरा पेट भरकर, मां को भूखा देखा है।। विनोद विद्रोही

पाला ना पड़े किसी का निजी अस्पतालों से।

अक्सर भयभीत हो जाता हूं ऐसे भयावह ख्यालों से। पाला ना पड़े किसी का निजी अस्पतालों से।। कदम-कदम पे इतना मांगते जैसे घूस लेते हैं। घर-बार, धन-दौलत ही नही, खून तक चूस लेते हैं।। निजी अस्पतालों की मार से हम ना यूं बेहाल होते। जो देश के सरकारी अस्पताल, सचमुच अस्पताल होते।। विनोद विद्रोही

कैसी भूख थी साहब, जो तुम चारा खा गए।

कभी नदी की मोड़ तो कभी नहर की धारा खा गए। कोई भूखंड तो कोई गली-चौबारा खा गए।। पहले जिसे खा चुके थे तुम उसे दोबारा खा गए। मीठे से जी ना भरा तो तुम खारा खा गए।। बेजुबान पशुओं के जीने का सहारा खा गए। कैसी भूख थी साहब, जो तुम चारा खा गए।। देश की कितनी प्रतिभाएं, ऐसे नकारा खा गए। कैसे बयां करे विद्रोही, ये नेता देश सारा खा गए।। विनोद विद्रोही नागपुर(7276969415)