कैसी भूख थी साहब, जो तुम चारा खा गए।

कभी नदी की मोड़ तो कभी नहर की धारा खा गए।
कोई भूखंड तो कोई गली-चौबारा खा गए।।
पहले जिसे खा चुके थे तुम उसे दोबारा खा गए।
मीठे से जी ना भरा तो तुम खारा खा गए।।

बेजुबान पशुओं के जीने का सहारा खा गए।
कैसी भूख थी साहब, जो तुम चारा खा गए।।
देश की कितनी प्रतिभाएं, ऐसे नकारा खा गए।
कैसे बयां करे विद्रोही, ये नेता देश सारा खा गए।।

विनोद विद्रोही
नागपुर(7276969415)

Comments

Popular posts from this blog

हां...गब्बर जिंदा है!

अभिव्यक्ति की आजादी से मुझे कोई बैर नहीं...