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Showing posts from June, 2017

एक सबब है मेरी खामोशी के पीछे...

ये जो उजाले तुम्हें दिख रहे हैं, दरसल अंधेरा है इसे भोर ना समझना। एक सबब है मेरी खामोशी के पीछे, मुझे कमजोर ना समझना।। विनोद विद्रोही

तो कृष्ण और राधा कभी जुदा ना होते...

कहते हैं इश्क करने वालों को रब मिलाता है, फ़िर वक्त की आंच पर हर रिश्ता क्यूं पिघल जाता है। गर जानते हश्र-ए-मोहब्बत तो यूं एक-दूजे पर फिदा ना होते, जो होती प्यार की कोई मंजिल तो कृष्ण और राधा कभी जुदा ना होते। विनोद विद्रोही

ऐसा ही प्रहार हो तुम्हारे भी गुप्तांग पे!

दिल में जो बात थी जुबां पर आ गयी, गद्दारों के हिमायती हो ये बात सतह पर आ गयी। अभिव्यक्ति की इस आजादी से देश का संविधान नंगा है, तुम जैसों के चलते ही गली-चौराहों में दंगा है। जैसे भीम ने मारा था गदा दुर्योधन की जांघ पे, एक ऐसा ही प्रहार हो तुम्हारे भी गुप्तांग पे।। विनोद विद्रोही

मेरे साथ तुम भी रो दोगे...

गर बात करेंगे उनकी,  तो तुम भी  सुध-बुध खो दोगे। जो सुनोगे दास्तान-ए-मोहब्बत, यकीं मानो मेरे साथ तुम भी रो दोगे।। विनोद विद्रोही

मौका मिले तो इंसान-इंसान को खा जाये!

इंसानियत का जिक्र ना करो साहब, आलम ये है की पशुता भी शरमा जाये। जानवरों की क्या बात करते हो विद्रोही, यहां मौका मिले तो इंसान-इंसान को खा जाये।। विनोद विद्रोही 🔥🔥🔥🔥🔥🔥🔥🔥 पसंद आए तो शेयर करें संपर्क सूत्र - 07276969415 नागपुर, Blog: vinodngp.blogspot.in Follow me: twitter@vinodvidrohi, Instagram@vinodvidrohi

गद्दारों से ज्यादा खतरा चाटुकारों से है!

सफ़र ये कभी थमा नहीं राह में पड़ने वाली दीवारों से, हमने तो रास्ता तय किया है दहकते अंगारों से। डर तो कभी उतना था नहीं गद्दारों से। जितना खतरा बना हुआ था चाटुकारों से।। विनोद विद्रोही

उसी से नफ़रत भी है, उसी से प्यार भी...

वो बेकसूर भी है वो गुनहगार भी है, वही दुश्मन भी है, वही यार भी है। बड़ा अजीब मसला है ये विद्रोही, उसी से नफ़रत भी है उसी सी प्यार भी है।। विनोद विद्रोही

यूं थूक कर कब तक चाटोगे...?

बदजुबानी की सीमाएं लांघो, फ़िर कहो कुछ हुआ ही नहीं। पहले थूको फ़िर चाटो ऐसे जैसे किसी को दिखा ही नहीं। विनोद विद्रोह नोट: उपरोक्त पंक्तियों को संदीप दीक्षित द्वारा सेनाध्यक्ष पर दिये बयान से जोड़कर ना देखें।

भला हम कैसे अपना प्यार बदल लें...

तुम तो अपने हो तो कैसे तुम पर अधिकार बदल लें। गर इतने ही व्यस्त हो तो आओ हम-तुम कारोबार बदल लें।। हम तो उनमें से नहीं जो वक्त के साथ यार बदल लें। तुम्हारी तुम जानो, भला हम कैसे अपना प्यार बदल लें।। विनोद विद्रोही

...तब जाकर दो जून की रोटी आती है।

यूं तो है अपनी पर कितना मुझे सताती है। जिंदगी हर मोड़ पर आईना मुझे दिखाती है। और मेरी मजबूरियां दिन भर कितनी जिल्लतें उठाती हैं। तब जाकर कहीं घर में दो जून की रोटी आती है।। विनोद विद्रोही

रक्त में उबाल क्यों नहीं आता दिल्ली के दरबारों के...

घाटी में लहराते देख ये झंडे चांद-सितारों के, रक्त में उबाल क्यों नहीं आता दिल्ली के दरबारों के। इतना समझ लो, जब तक इलाज ना करोगे घर में छुपे गद्दारों का, खून यूं ही बहता रहेगा देश के पहरेदारों का।। विनोद विद्रोही

मतलब निकल जाये तो मित्र बदल लेते हैं...

पसंद ना आये तो इत्र बदल लेते हैं , जी भर जाये तो दीवारों के चित्र बदल लेते हैं। बड़ी अजीब दुनिया है ये विद्रोही, मतलब निकल जाये तो लोग मित्र बदल लेते हैं।। विनोद विद्रोही

पिता साथ है तो हर हौसला आसमान सा लगता है...

पिता साथ है तो हर हौसला आसमान सा लगता है। उस एक शख्सियत में समाया सारा जहान सा लगता है। वो डांट, वो फटकार, वो गुस्सा आज सबमें छुपा एक ज्ञान सा लगता है। मत पूछो क्या होता है पिता को खोने का दर्द, सब कुछ मुझे अब वीरान सा लगता है।। पिता साथ है तो हर हौसला आसमान सा लगता है..। विनोद विद्रोही

कश्मीर तो छोड़ो पकिस्तान में भी ज़मीन नहीं होगी...

घर की शह पर मातम पड़ोसी की जीत का ज़शन मनाते हो, हमारा ही खाकर हमको ही टशन दिखाते हो। गर हम अपनी पर आ गये तो ये  आतंक नाम की मशीन नहीं होगी। कश्मीर तो छोड़ो पकिस्तान में भी तुम्हारे लिये कोई ज़मीन नहीं होगी॥ विनोद विद्रोही

तुम तो अपने हो तो कैसे तुम पर अधिकार बदल लें...

तुम तो अपने हो तो कैसे तुम पर अधिकार बदल लें। गर इतने ही व्यस्त हो तो आओ हम-तुम कारोबार बदल लें।। हम तो उनमें से नहीं जो वक्त के साथ यार बदल लें। तुम्हारी तुम जानो, भला हम कैसे अपना प्यार बदल लें।। विनोद विद्रोही

यूं तो है अपनी पर कितना मुझे सताती है...

यूं तो है अपनी पर कितना मुझे सताती है। जिंदगी हर मोड़ पर आईना मुझे दिखाती है। और मेरी मजबूरियां दिन भर कितनी जिल्लतें उठाती हैं। तब जाकर कहीं घर में दो जून की रोटी आती है।। विनोद विद्रोही

कहीं फेंक आओ इस झूठे अभिमान को...

जाकर कहीं फेंक आओ इस झूठे अभिमान को, कि अन्नदाता कहते हैं देश के किसान को। हड्डियों को गलाकर, धरती की छाती फाड़कर अनाज उगाता है। पर अफसोस खुद का ही पेट नहीं भर पाता है। कभी मौसम की मार, तो कभी साहूकारों के अत्याचार, कभी बिचौलियों की धौंस तो कभी दलालों की दुतकार। हर दर्द सहकर भी वो अनाज पहुँचाता बाजार, देश का पेट भर देता है, भले खुद रह जाता लाचार। अब तो ज़हर लगती हैं तुम्हारी आश्वाशनों वाली ये बोली, और हक मांगने निकलो तो मिलती है सिर्फ़ गोली। कहां जायें किससे फरियाद करें तुम ही बता दो, या फ़िर एक काम करो, हमें हमारे खेत में ही दफना दो। क्योंकि इस बेबसी के साथ अब और जिया नहीं जाता, उम्मीदों का ये ज़हर अब हमसे पिया नहीं जाता। हर रोज़ जलते देखते हैं अधूरे अरमान को, कहीं दूर फेंक आओ इस झूठे अभिमान को, कि अन्नदाता कहते हैं देश के किसान को।। विनोद विद्रोही 🍁🍁🍁🍁🍁🍁🍁🍁🍁🍁 पसंद आए तो शेयर करें संपर्क सूत्र - 07276969415 नागपुर, Blog: vinodngp.blogspot.in twitter@vinodvidrohi