Posts

Showing posts from January, 2017

जो कुत्ते तूने पाले हैं एक दिन तुझे ही काट खायेंगे...

नजरबंदी का ये नाटक नहीं लगता है सच्चा, ऐ पाकिस्तान तूने समझा है क्या हमको बच्चा। हम खूब जानते हैं तेरी चालों को, पनाह देता आया है तू आतंक के दलालों को। लादेन का हश्र देखकर अब तक तू घबराया है, हाफिज को बचाने के लिए नजरबंदी का जाल बिछाया है। आतंक के ये ठेकेदार तेरे सिर चढ़ जाएंगे, जो कुत्ते तूने पाले हैं एक दिन तुझे ही काट खायेंगे।। नजरबंदी जवाब नहीं है हमारे सवालों का, रक्त सूखा नहीं है अब तक भारत मां के लालों का। 26/11 के जख्म आज भी हरे हैं, तुकाराम ओंबले की पत्नी की आंखों में आंसू भरे हैं। नहीं भूलें हैं हम संदीप उन्नीकृष्णन, करकरे, कामटे की शहादत को, सैंकड़ों जानें लेने वाली उस आफत को। आंखों में आज भी वो जलता हुआ ताज दिखाई देता है, इस आग को लगाने वाला सरताज दिखाई देता है। अरे अपनी प्रमाणिकता का तुम एक तो सबूत दो, नजरबंदी नहीं, हाफिज को हमें सौंप दो। तब मानेंगे तुम आतंक के प्रशंसक नहीं हो, हाथों में चूंड़ियां पहन कर बैठे नपुंसक नहीं हो।। विनोद विद्रोही

बोए पेड़ बबूल का तो आम कहां से पाए...

बोए पेड़ बबूल का तो आम कहां से पाए, जो गड्ढा खोदा तुमने, आज उसी में तुम रहे भहराय। सबूत देकर भी कितना तुमको रहे हम समझाए, फिर भी आतंकी मा तुमको समाजसेवक नरज आए। विनोद विद्रोही

हिमस्खलन नहीं सिस्टम का चरित्र स्खलन है!

कुदरत का कहर कहूं या कहूं कोई सितम, जवानों की शहादत आज फिर आंखें हैं नम। समझ नहीं आता ये हिमस्खलन है, या देश के सिस्टम का चरित्रस्खलन है, जो भी है जवानों की लाशों को देखकर सीने में जलन है।। पहाड़ों की बर्फ को पिघल जाती है, तुम्हारा दिल क्यों नहीं पिघलता। बात करते हो चांद पर जाने की, लेकिन जमीनी हकीकत से परे हो, तुमको भी फर्क पड़ता अगर सीमा बेटे तुम्हारे मरे हो।। जवानों की मौत पर कब तक घड़ियाली आंसू बहाओगे, प्रकृति के नाम पर अपनी विकृति कब तक छुपाओगे। कुदरत नहीं इन जवानों की मौत के तुम जिम्मेदार हो, घर में छुपे बैठे तुम सबसे बड़े गद्दार हो।। विनोद विद्रोही

जब-जब लाघोंगे सीमा तब-तब मुंह की खाओगे...

ना थप्पड़ का समर्थक हूं, ना पक्षधर हूं हिंसा का, लेकिन इतिहास से खिलवाड़ करने वाले कभी पात्र नहीं हो सकते प्रशंसा का। अति से क्षति के सिद्धांत को कैसे तुम झुठलाओगे, जब-जब लाघोंगे सीमा तब-तब मुंह की खाओगे।। विनोद विद्रोही

क्या सचमुच मेरा भारत महान है...

वाह के राजनीति मान गए तेरे हथकंडों को, टिकट मिल जाता है जेल में बैठे गुंडों को। तुम्हारे मधुर संबंधों की क्या बात है, भूख-गरीबी लगता है सब इसी की सौगात है।। कल तक जिनको तुमने ही ठहराया था अपराधी, आज वो बने बैठे हैं तुम्हारे खास साथी। सचमुच, कुर्सी का ये लोभ सबकुछ करा जाता है, बात सत्ता की हो तो दुश्मन भी दोस्त बन जाता है।। यहां चोर-उच्चके मिलकर चलाते अपनी राजनीतिक दुकान हैं, क्या फर्क पड़ता है किसके पास रोटी है, किसके सर पर नहीं मकान है। नहीं देखे जाते संविधान की छाती पर ये जो चोट के निशान हैं, क्या सचमुच मेरा भारत महान है।। विनोद विद्रोही

हिम्मत है तो सामने आओ, अब आर या पार हो जाए...

सारी घाटी दहक रही है बारूदी अंगारों से, दिल हमारा जलता हो इन देश विरोधी नारों से। एक सबूत दे चुके हैं, अपनी असल परिपाठी का, फिर सबक क्यों नहीं लेता जो दुश्मन है घाटी का। ऐसे में इन कायरों की खोखली चुनौतियां क्यों न स्वीकार हो जाए, हिम्मत है तो सामने आओ, अब आर या पार हो जाए।। विनोद विद्रोही

गणतंत्र दिवस चिरायु हो..लंबी इसकी आयु हो...

गणतंत्र दिवस चिरायु हो..लंबी इसकी आयु हो, एकता-सद्भाव का वातावरण, स्वच्छ वायु हो, देशभक्ति का जज्बा दौड़े ऐसी हमारी स्नायु हो, देश के रावणों से लोहा लेता हर गली में एक जटायु हो। गणतंत्र दिवस चिरायु हो..लंबी इसकी आयु हो।। विनोद विद्रोही

चलो अच्छा हुआ बरी अपना बजरंगी भाईजान हो गया...

सबकुछ जानकर भी वो अंजान हो गया, कैसे बतलाऊं कि कौन बेईमान हो गया, क्या हुआ, कब हुआ सबकुछ अब सवालिया निशान हो गया, चलो अच्छा हुआ, बरी अपना बजरंगी भाईजान हो गया। क्या फर्क पड़ता है कौन आया गाड़ी के नीचे, किसने जान गंवाई है, क्यों भूल जाते हो सबसे बड़ा पैसा मेरे भाई है।। कौन पूछने वाला है जानवर मरा, या मरा है कोई इंसान, अंधे इस कानून में दो टके में बिका जाता है ईमान।। तुम जश्म मनाओ बेहाई का, घर किसी का सूनसान हो गया, चलो अच्छा हुआ, बरी अपना बजरंगी भाईजान हो गया। जाने कैसे तुम्हे संदेह का लाभ मिल जाता है, यहां तो संदेह भी जाए तो जीवन जेलखाना हो जाता है। काश आमजन के लिए भी न्याय में ऐसी सरलता हो जाए, तो देश की न्यायपालिका में विश्वास और पुख्ता हो जाए।   वो मौत बांटकर भी बना सबका दुलारा है, सचमुच सारे जहां से अच्छा हिंदोस्तां हमारा है।।   झूठ की जीत हुई सच बदनाम हो गया, चलो अच्छा हुआ, बरी अपना बजरंगी भाईजान हो गया।। विनोद विद्रोही

दकियानूसी सोच पर तुम्हारी सारा देश शर्मिंदा है...

कश्मीर की आज़ादी नहीं, बर्बादी हो तुम, मेरी नज़रों में अलगाववादी नहीं, उग्रवादी हो तुम। घाटी में आतंक के पोषक बने हुए हो, राष्ट्रप्रेम की विचारधारा के शोषक बने हुए हो।। मासूमों को धमकाने वालों कैसे ज़मीर तुम्हारा जिंदा है, दकियानूसी सोच पर तुम्हारी सारा देश शर्मिंदा है।। विनोद विद्रोही

हमसे ही तुम निकले हो, हम पर ही गुर्राते हो...

हमसे ही तुम निकले हो, हम पर ही गुर्राते हो, कैसे बेटे हो बाप को आंख दिखाते हो। चलो माना आज कड़वाहट है, पर इस रिश्ते का कुछ तो मान रख लो, हमारे पिता होने का थोड़ा तो सम्मान रख लो। समझते क्यों नहीं बाप के हाथों ये कर्म अच्छा नहीं लगता, हम तुम पर ताने बंदूक ये दृश्य सच्चा नहीं लगता। पर क्या करें जो तुम मांग रहे हो उसमें है हमारी आत्मा, कहीं ऐसा ना हो, कश्मीर के चक्कर में हो जाए तुम्हारा खात्मा।। विनोद विद्रोही

कहो तो पूरी पिक्चर दिखला दें...

अभी तो सिर्फ एक ट्रेलर दिखालाया है, कहो तो पूरी पिक्चर दिखला दें,  कराची और लाहौर क्या  कहो तो पूरा पाकिस्तान हिला दें। हमारी उदारता को हमारी कमजोरी ना समझ ऐ पाकिस्तान, अगर अपनी पर आ जाएं तो तुझे मिट्टी में मिला दें।। विनोद विद्रोही

ढंग की मौत का तो इंतजाम कर दो...

वह ताउम्र ढोता रहा जिंदगी का हर बोझ, पर कंधे पर लाशों का बोझ उससे ढोया ना गया। अरे आंखें बन चुकी थी समंदर, पर मजबूरियों के आगे उससे रोया ना गया। ये तस्वीरें देखकर हमारे नेताओं का दिल क्यों नहीं सिहरता है, कागजों पर बनी विकासी योजनाओं से कहीं पेट भरता है।। चाहो तो लूट-खसोट का ये चलने सरेआम कर दो, ढंग की जिंदगी ना सही, ढंग की मौत का तो इंतजाम कर दो।। विनोद विद्रोही

तिल भर भी गांधी बनकर दिखाओ....

सच बताओ ये झगड़ा सचमुच खादी या गांधी की हस्ती का है, या फिर ये लम्हा सबके के लिए सिर्फ मौका परस्ती का है। ये सवाल ना किसी शहर, ना किसी बस्ती का है, मुझे तो लगता ये सारा मसला जबरदस्ती का है।। क्योंकि अफसोस, गांधी नोट पर हैं, पर विचारों में नहीं, गांधी वोट पर हैं पर अधिकारों में नहीं, सवालों में हैं जवाबों में नहीं, किताबों में हैं ज्जबातों में नहीं। उम्मीदों में हैं इरादों में नहीं, कसमों में हैं वादों में नहीं, आखों में हैं पानी में नहीं, बचपन में हैं जवानी में नहीं। गांधी मिट्टी में हैं मकानों में नहीं, झोपड़ियों में हैं दुकानों में नहीं, और गांधीं भूतकाल में हैं, वर्तमान में नहीं, सच तो ये है गांधी आज शमशान में हैं, हिंदुस्तान में नहीं।। ऐेसे में कौन है गांधी का सच्चा पुरोधा मेरे सामने आए. गांधी की बात करने वाला तिल भर भी गांधी बनकर दिखाए।। विनोद विद्रोही

देश के जवानों को ढंग की रोटी मय्यसर कर दो...

कब तक दिखाओगे तुम ख्वाबों के ये हसीन बाग, अगर धुआं उठा है तो जरूर लगी होगी कहीं आग। आज फिर ख्याल आया है, मंत्रियों के लिए बनी कैंटीनों का, जहां दो रुपल्ली में उठाते हैं मजा ये कैफे-चीनो का। अपनी इन सुविधाओं पर तुम खूब इतराते हो, बीस रुपल्ली में तंगड़ी-कबाब जमकर दबाते हो। तुम खींचकर खाते हो चिकन बिर्यानी, और जवानों को मिलता है दाल का पानी। एक विनंति है सत्ता के कर्णधारों से, मत करो हमें वंचित हमारे ही अधिकारों से। होने वाली हर असुविधा को तुम आज बेअसर कर दो, देश के जवानों को ढंग की रोटी मय्यसर कर दो।। विनोद विद्रोही

ये कैसा दौर है समाजवादी का...

सत्ता की मलाई खाकर वो कुछ इस कदर फूल गया, चाचा तो छोड़ो, बाप तक को भूल गया। चलो माना आज कई विधायक तु्म्हारे साथ हैं, पर पुत्रधर्म ना निभाना भी एक विश्वासघात है।। ये कैसा दौर है समाजवादी का, परिदर्श दिख रहा सिर्फ बर्बादी का। सम्मान की लड़ाई में रिश्तों के टूटने का भय रहता है, घर में भेदी हो तो लंका ढह जाना तय रहता है।। विनोद विद्रोही

कहीं ऐसा ना हो दुनिया के नक्शे से ही तू साफ हो जाए...

हमारी एक दहाड़ से भीगी बिल्ली की तरह कांपते हो, फिर क्यों बार-बार कश्मीर का राग अलापते हो। जाने क्यों तु्म्हें आज तक समझ नहीं आया है, एक बार नहीं कइयों बार सबक तु्म्हे सिखाया है।। शरीफ, तुम कहते हो कश्मीर पाकिस्तान का अभिन्न हिस्सा है, मैं कहता हूं पाकिस्तान तू बस कुछ दिन का किस्सा है। मत कर मजबूर की हमारे हाथों ये पाप हो जाए, कहीं ऐसा ना हो दुनिया के नक्शे से ही तू साफ हो जाए।। विनोद विद्रोही

भौतिक सुखों की कैसी ये जिंदगी है...

भौतिक सुखों की कैसी ये जिंदगी है, कुत्ता पालना स्टेट्स और गाय पालना शर्मिंदगी है।। विनोद विद्रोही

इंसानों में पशुता से ज्यादा कुछ बचा नहीं...

इन कांक्रीटी जंगलों में अब पशुओं के लिए कोई जगह नहीं, वैसे भी इंसानों में पशुता से ज्यादा कुछ बचा नहीं।। ये वो दर्द है जिसकी कोई दवा नहीं, बहुत ढूंढा, इंसान तो कोई यहां दिखा नहीं।। विनोद विद्रोही

मज़हब का मतलब मैं इंसान लिखता हूं...

मज़हब का मतलब मैं इंसान लिखता हूं, जर्रे-जर्रे पर मैं गीता और कुरान लिखता हूं। स्वर्ग सी इस धरती पर मैं सारा आसमान लिखता हूं, कोई पूछे पता मेरा, तो मैं हिंदूस्तान लिखता हूं।। विनोद विद्रोही

साक्षी तुम इस देश का कल थे, आज नहीं...

साक्षी तुम इस देश का कल थे, आज नहीं, तुम सबकुछ हो सकते हो पर महाराज नहीं। स्वयंघोषित मज़हब के तुम सरताज नहीं, तुम कुछ भी हो पर इंसानियत की आवाज़ नहीं।। गंगो-जमुनी तहज़ीब, सर्व धर्म संभाव के हम प्रणेता हैं, मुझे दुख है कि तुम जैसे हमारे नेता हैं। तुम्हारी ये सोच नहीं दीमक है, तुम्हारा ये बयान नहीं, दूध में नमक है।। विनोद विद्रोही

अनुशासनहीनता का कड़वा सच

मौजूदा समय में उत्तर प्रदेश के राजनीतिक माहौल ने गंभीर चिंतन के लिए मजबूर कर दिया है। मैं ही नहीं मेरे जैसे हर कलमकार के लिए यह चिंता का विषय हो सकता है। यहां एक बार फिर राजनीतिक मूल्य हशिये पर चढ़ते दिखाई दे रहे हैं। स्वयं को सही साबित के लिए बाप-बेटे में ठन गई है तो, कुछ लोग विभीषण की भूमिका भी बखूबी निभा रहे हैं।  खैर ये समाजवादी पार्टी का निजी मामला है, इसपर ज्यादा समय व्यर्थ करना उचित नहीं लगता। मेरा सवाल यहां नेता जी उर्फ मुलायम सिंह साहब से है। मुलायम जी आपकी पार्टी में आपके मुख्यमंत्री बेटे, आपके भाई पार्टी के नियमों से हटकर कुछ करते हैं तो वो आपको अनुशासनहीनता लगती है। आपने इस अनुशासनहीनता के खिलाफ बड़ी ही तत्परता के साथ बेटे और भाई को पार्टी से निकालने का खेल भी खेला। खैर चलो मान लिया ये भी आपका निजी मामला है, हालांकि अब इसमें निजता जैसा कुछ रहा नहीं। मैं यहां मुलायम सिंह जी की तारिफ करना चाहूंगा कि उन्होंने पार्टी में अनुशासनहीनता के खिलाफ काफी कड़े तेवर अपनाय। लेकिन मैं नेता जी से यहां सवाल पूछता हूं कि क्या उस वक्त आपको अनुशासनहीनता नहीं दिखाई दी जब दादरी कांड की सांप्रदा