ताउम्र नहीं भुला सकता मैं मां के उस क्रंदन को...

ताउम्र नहीं भुला सकता मैं मां के उस क्रंदन को,
जब मिटाया गया सिंदूर, उतारे गये मां की चूड़ी-कंगन को,
उसका सबकुछ छीन गया मां ये भांप गई थी,
मां के रूदन से धरती तक कांप गई थी।
हे मेरे मालिक ये कैसा कहर तूने हमपर बरपाया था,
छाती फट गई थी कलेजा हाथ में आया था।

जीवन ने पहली बार ऐसा समय दिखाया था,
दिन के उजाले में भी अंधेरा सा छाया था।
घर के आंगन में भारी भीड़ का भरमाया था,
जब पिता का पार्थिव शरीर अस्पताल से घर आया था।
कैसे बताऊं कैसा वो सैलाब था,
ऐसा लगता घर नहीं, जैसे कोई आंसूओं को तलाब था।।
स्तब्ध खड़ा देख रहा था मैं एक अशोभनीय परिवर्तन को,
ताउम्र नहीं भुला सकता मैं मां के उस क्रंदन को।।

पिता आज नहीं, उनको गए सालों बीत गए,
आखों के ये आंसू आंखों में ही सूख गए।
लेकिन घर आज भी जैसे चलता था, वैसे ही चलता है,
सबसे पहले खाना आज भी पिता के लिए ही निकलता है।
मां की ये मासूमियत मुझे खूब भाती,
पिता की तस्वीर के रोज खाने का भोग लगाती है।
आज भी़ महसूस करता हूं मैं उस आवाज़ को, उस कंपन को,
ताउम्र नहीं भुला सकता मैं मां के उस क्रंदन को।

विनोद विद्रोही

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