जब देखता हूं भीख मांगते बच्चों को चौराहों पर...
उम्र बचपन की, बोझ पचपन का:
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जब-जब देखता हूं भीख
मांगते बच्चों को चौराहों पर।
शर्मिंदा हो उठता हूं देश की
व्यवस्थाओं पर।।
किसी बेबस बाग के ये,
मुरझाये हुये फूल हैं।
बचपन क्या होता है,
गये ये भूल हैं।
कभी इस तो कभी उस गाड़ी के,
पीछे दौड़ लगाते हैं।
बेचारे पेट की खातिर कहां-कहां,
हाथ फैलाते हैं।
कभी इसकी दुत्कार, तो कभी उसकी फटकार सुनकर
इनके सुध-बुध खो जाते हैं।
क्या फुटपाथ, क्या कचरे का ढेर
जहां जगह मिली ये बच्चे सो जाते हैं।
ज़िंदगी ने जो सबक इन्हें सिखाया है।
कोई किताब, किसी स्कूल ने कहां
ये पढ़ाया है।
कैसे कह दूं ये बच्चे देश का
कल हैं।
हकीकत तो ये है, दो जून का
निवाला भी पाने में ये विफल हैं।।
कागजों पर जगमगाती दुनिया के
पीछे का ये अंधेरा सूनसान हैं।
इनकी भी फिक्र करो साहब,
ये भी तो हिंदुस्तान हैं।।
विनोद विद्रोही
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जब-जब देखता हूं भीख
मांगते बच्चों को चौराहों पर।
शर्मिंदा हो उठता हूं देश की
व्यवस्थाओं पर।।
किसी बेबस बाग के ये,
मुरझाये हुये फूल हैं।
बचपन क्या होता है,
गये ये भूल हैं।
कभी इस तो कभी उस गाड़ी के,
पीछे दौड़ लगाते हैं।
बेचारे पेट की खातिर कहां-कहां,
हाथ फैलाते हैं।
कभी इसकी दुत्कार, तो कभी उसकी फटकार सुनकर
इनके सुध-बुध खो जाते हैं।
क्या फुटपाथ, क्या कचरे का ढेर
जहां जगह मिली ये बच्चे सो जाते हैं।
ज़िंदगी ने जो सबक इन्हें सिखाया है।
कोई किताब, किसी स्कूल ने कहां
ये पढ़ाया है।
कैसे कह दूं ये बच्चे देश का
कल हैं।
हकीकत तो ये है, दो जून का
निवाला भी पाने में ये विफल हैं।।
कागजों पर जगमगाती दुनिया के
पीछे का ये अंधेरा सूनसान हैं।
इनकी भी फिक्र करो साहब,
ये भी तो हिंदुस्तान हैं।।
विनोद विद्रोही
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