चंद पत्थरों से ही तुम घबरा गये...

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चंद पत्थरों से ही तुम घबरा गये।
आंखें तिरोर लीं, लाल-पीले
हो पगला गये।

उनका क्या जो तुम्हारी नाकामियों
का बोझ रोज़ उठाते हैं।
एक पत्थर की क्या बात करते हो
यहां सैकडों पत्थर रोज़ खाते हैं।

दूसरों के जख़्मों का कब
किसे आभास होता है।
बीतती है जब खुद पर
तब ही दर्द का एहसास होता है।।
विनोद विद्रोही
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