....है शायद!

.....है शायद!
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नज़रें बार-बार मुड़कर
किसी को ढूंढती हैं।
लगता है किसी ने पुकारा
है शायद।।

इस दिल का कोई इलाज
मुमकिन नहीं।
फिर हुआ इसे वही वहम
दोबारा है शायद।।

कल दूर से देखते ही फेर ली
थीं नज़रें उसने।
अभी-अभी नज़रों
से उतारा है शायद।।

चांद सुबक रहा है ओढ़े
बादलों की एक चादर।
टूटा फिर कोई
सितारा है शायद।।

और यूं अचानक हाथ क्यों
छोड़ दिया तुमने ।
मिल गया कोई किनारा
है शायद।।

विनोद विद्रोही
नागपुर

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