खड़ी क्यों है, गिरा दो मज़हब की ये जो दीवारें हैं...

इंसानियत चीख-चीख कर अक्सर ये पुकारे है।
 खड़ी क्यों है, गिरा दो मज़हब की जो ये दीवारें हैं।
 ये मज़हब तो देन नहीं हमारे दाता का,
आपस में ही खींच लो तलवारें,
ऐसा तो फ़रमान नहीं किसी विधाता का।

तो फ़िर बढ़ रहा धर्म का इतना मसला क्यों है।
इंसान के  दिलों में प्यार की जगह भर रहा
ये बारूद और असला क्यों है।
ऐसा करके आखिर क्या पाओगे,
मिट्टी का ये शरीर है, एक दिन मिट्टी में मिल जाओगे।

तो जितना बांट सको प्यार बांटते चलो।
कम से कम दिलों मे तो जिंदा रह जाओगे।।

विनोद विद्रोही
नागपुर

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