जाकर कहीं फेंक आओ इस झूठे अभिमान को, कि अन्नदाता कहते हैं देश के किसान को। हड्डियों को गलाकर, धरती की छाती फाड़कर अनाज उगाता है। पर अफसोस खुद का ही पेट नहीं भर पाता है। कभी मौसम की मार, तो कभी साहूकारों के अत्याचार, कभी बिचौलियों की धौंस तो कभी दलालों की दुतकार। हर दर्द सहकर भी वो अनाज पहुँचाता बाजार, देश का पेट भर देता है, भले खुद रह जाता लाचार। अब तो ज़हर लगती हैं तुम्हारी आश्वाशनों वाली ये बोली, और हक मांगने निकलो तो मिलती है सिर्फ़ गोली। कहां जायें किससे फरियाद करें तुम ही बता दो, या फ़िर एक काम करो, हमें हमारे खेत में ही दफना दो। क्योंकि इस बेबसी के साथ अब और जिया नहीं जाता, उम्मीदों का ये ज़हर अब हमसे पिया नहीं जाता। हर रोज़ जलते देखते हैं अधूरे अरमान को, कहीं दूर फेंक आओ इस झूठे अभिमान को, कि अन्नदाता कहते हैं देश के किसान को।। विनोद विद्रोही 🍁🍁🍁🍁🍁🍁🍁🍁🍁🍁 पसंद आए तो शेयर करें संपर्क सूत्र - 07276969415 नागपुर, Blog: vinodngp.blogspot.in twitter@vinodvidrohi